गुरुपूर्णिमा विशेष : आलेख
@सुश्री सरोज कंसारी
“गुरु और शिष्य का नाता भक्त और भगवान के जैसे होना चाहिए..”
गुरु के सानिध्य में रहकर शिष्य किताबी ज्ञान ही नहीं,व्यावहारिक जीवन का भी पाठ पढ़ता हैं। जिनकी बातो की गहराई रुह को स्पर्श कर गलत दिशा में जाने से रोके वे होते हैं सच्चे गुरु।
मन के कोरे कागज में जीवनोपयोगी सार्थक अर्थो को समाहित कर, जो अनर्गल बातों से दूर रखें। अज्ञानता के अंधेरे को चीरकर उम्मीदों की जो रोशनी प्रदान करें वे होते है- “गुरु”। बोझिल जीवन नैया को अपने ज्ञान के सागर से भव से पार कराते हैं। सदियों से चली आ रही गुरु-शिष्य की परंपरा भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। जहाँ गुरु के सानिध्य में रहकर शिष्य सिर्फ कोरी किताबी ज्ञान नहीं, व्यावहारिक जीवन की पाठ पढ़ता हैं। उनका अनुसरण करता और गूढ़ रहस्यों को जानकर अपनी जिज्ञासा शांत करता है।
गुरु के चरणों में जो पूरे मनोयोग से स्व को समर्पित कर, सीखने के लिए लालायित होते हैं सच्चा सुख उन्हें ही प्राप्त होता है। विचलित भटकते हुए रूह को एकाग्रता गुरु से ही प्राप्त होती है। बिना गुरु के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। गुरु के मार्गदर्शन में ग़म के गहन अंधकार में भी, उम्मीद की रोशनी मिलती हैं। जीवन के हर पग पर गुरु हमारे प्रेरणास्रोत होते हैं जों हमे मंज़िल का सही पता देते हैं। जीवन के कठिन पथ के सही हम सफ़र होते है, जिनके सानिध्य में जीवन पल्लवित और पुष्पित होता है। जो हमें अपने ज्ञान की ज्योति से जागरूक और सक्रिय करते हैं। एक सही सच्चा गुरु जिसके पास हो, वे कभी भटक नहीं सकते। बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं।
प्राचीन काल में प्रकृति की गोद में रहकर शिष्य गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करते थे। जहाँ उन्हें बालपन से लेकर युवावस्था तक सभी प्रकार के साम -दाम दंड-भेद की नीति बताई जाती थी। शस्त्र- शास्त्र चलाना सिखाया जाता था। जीवन की कठिनाइयों से जूझने हेतु प्रेरित किया जाता था। भारतीय संस्कारो की हर विधा की जानकारी बारीकी से दी जाती थी ।सुबह से रात तक दिनचर्चा निर्धारित होती थी जिसमें योग-ध्यान, शारीरिक कुशलता, अभ्यास, जंगल से लकड़ी लाना,पानी भरना, भिक्षा लेकर आना ,भोजन बनाना, साफ-सफाई शिष्य खुद करते थे। यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर जो निकलते वे बहुत ही ज्ञानी, महात्मा प्रकांड पंडित विद्वान, शूरवीर होते थे। गुरु-शिष्य की अमर-गाथाओं से हमारे देश का इतिहास भरा पड़ा हैं। द्रोणाचार्य-अर्जुन, भीम,वाल्मीकि – लवकुश, संदीपनी- श्री कृष्ण, वशिष्ठ- राम-लक्ष्मण भरत- शत्रुघन, और रामकृष्ण परमहंस-विवेकानंद आदि गुरु शिष्यों ने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।
आने वाली पीढ़ियो को उन शिक्षाओं को अवश्य ग्रहण करना चाहिए, जिससे उन्हें प्रेरणा मिलें और हमारा यह देश पुनः विश्व गुरु के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकें। आज शिक्षा का जो दृश्य दिखाई देता है, वह बहुत ही दयनीय हैं। जहाँ, किताबी ज्ञान से बच्चों का जीवन बोझिल प्रतीत होता है। नौकरी को ही उद्देश्य बनाकर चलने वाले विद्यार्थी जब पढ़-लिखकर निकलते हैं तो सिर्फ सरकारी नौकरी ढूंढते हैं।कई बार स्थिति यह होती हैं कि- नाकाम होने पर अनुचित कदम उठाने में भी पीछे नही हटते।हर कोई आज डिग्री पाकर डॉक्टर वकील, इंजीनियर पायलट व वैज्ञानिक आदि बनना चाहते हैं। अपनी परम्परागत व्यवसाय को अपनाने में शर्म महसूस करते हैं। नौकरी कर बड़े- बड़े सपनो को पूरा करना उनका उद्देश्य होता है। राम-कृष्ण गौतम- गाँधी, नानक जैसे-महापुरुष कोई नही बनना चाहते।
संस्कारों से कोसो दूर कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करने वाले आज के विद्यार्थी जमीनी हकीकत का सामना नही कर पाते, जल्दी ही वे विचलित हो जाते हैं। माता-पिता की सेवा, गुरु के प्रति समर्पण, आज्ञाकारी भाव, बिल्कुल नाम मात्र रह गया हैं। नैतिक ज्ञान के अभाव में उनकी मानसिकता आधुनिकता से अधिक प्रभावित हैं ।जहां, पाश्चत्य संस्कृति उन पर पूरी तरह हावी हैं। फैशन की दुनिया में नित नए चीजों से जल्द ही आकर्षित हो जाते हैं ।अश्लील फिल्म, मॉडलिंग और डायलॉग से अधिक प्रभावित होते हैं, असल जिंदगी में भी वहीं हरकत करते है। भले ही कमाई कुछ नहीं करते, बेरोजगार रहेंगे पर दिखावा करने में पीछे नहीं रहते। मोबाईल,गाड़ी, अच्छे कपड़े को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं।
संयमित जीवन न होने के कारण जल्द ही क्रोधित हो जाते हैं। देर से सोने–जागने, प्रकृति से दूर रहने के कारण अति उग्र स्वभाव के होते हैं। बड़ों की आज्ञा पालन तो दूर की बात है,बात –बात पर चिल्लाना, चिड़चिड़ापन जैसे स्वभाव बन गया है। मोबाईल की दुनिया में ही छोटे बच्चें से लेकर युवावर्ग तक सभी सिमट कर रह गये हैं।
कैसे एक सुनहरे भविष्य का निर्माण करेगी?
आज की यह पीढ़ी चिंतनीय विषय है। हर माता-पिता की चाह होती हैं– बच्चा अच्छी शिक्षा लेकर एक योग्य नागरिक बने और परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में अग्रणी भूमिका का निर्वहन करें। कोई भी अभिभावक नहीं चाहेंगे की उन्हे ग़लत सीख मिलें, अव्यावहारिक कार्य करें। आज के विद्यार्थियों को आदर्श–संस्कार, सभ्यता और संस्कृति की बातें फिजूल लगती हैं। वे अच्छी बातो और किताबों को पढ़ना नहीं चाहते लेकिन सोशल मीडिया में फ़ूहड़ फिल्मी गीत,नृत्य, रहन-सहन, पहनावा को देखकर जल्द ही अनुकरण करते हैं। आज देश दुनिया के लोग पुरातन भारतीय संस्कृति और शिक्षा का अनुकरण कर सभ्य सामाज के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। धर्म शास्त्र ,वेद-पुराण महाभारत ,रामायण और गीता को पढ़ने और जीवन को धन्य करने को उत्सुक हैं। वहीं भारतीय शिक्षा मात्र किताबी ज्ञान, बोझिल पाठ्यक्रम तक सिमट कर रह गई हैं। सभी यहां अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाकर विद्वान बनाना चाहते हैं। कहते हैं –अंग्रेजी आज की मांग हैं और विदेश में शिक्षा प्राप्त कर ढल जाते हैं – वहीं की हवा पानी और मिट्टी में ।फिर भारतीय भावना के प्रचार और सिर्फ ढिंढोरा पीटने से क्या होगा? जब हम खुद तैयार है, विदेशी रंग में रंगने के लिए। आज न गुरु में वो भाव हैं शिष्य को संस्कारित करने की,न शिष्य में लगन हैं सीखने की,बस एक औपचारिकता का निर्वहन सभी कर रहे हैं। जरुरी तो हैं शिक्षा के पुर्ननिर्माण की,भारतीयता से पूर्ण संस्कारित शिक्षा के साथ, तकनीकी क्षेत्र मे आगे बढ़ने की।
आज आवश्यकता हैं एक सार्थक चिंतन की। जिसमें हम शिक्षा की वास्तविकता से आज के विद्यार्थियों को परिचित करा पाएं ।जरूरी हैं एक उचित दिशा देने की जहां हम उन्हें सही–ग़लत को समझाने में सफल हो सकें। सदाचार की बातों को वे भी अंगीकार कर पाएं। भारतीय शिक्षा पद्धति ,धर्म, आध्यात्म को सुने –समझे और उन्हें अनुकरण करने को तैयार हो। जिम्मेदार नागरिक बनें। सेवाभावी,बड़ों का सम्मान, कर्मठ, जागरुक, मानवीय भाव, दया, स्नेह, करुणा, वात्सल्य के भाव सीखा सकें। एक ऐसी शिक्षा नीति हो, जों योग्य नागरिक के निर्माण में सहयोगी हो। बालको को अभाव में भी जीने की कला सीखा सकें, उन्हें सुविधा भोगी और किताबी ज्ञान के अलावा नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने में सहायक हो। राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का बोध हो।
गुरु और शिष्य का नाता भक्त और भगवान के जैसे होना चाहिए। निस्वार्थ रुप से दोनो जुड़े हो, जिसमे भाव प्रधान हो ।समर्पित हो एक दूसरे के प्रति,जो सांसारिक जीवन की विडंबनाओं से आत्मा को शुद्ध पावन और निश्छल करने के लिए मन व्याकुल हो उठें,वहीं शिक्षा सार्थक हैं। गुरु के प्रति सदैव सम्मान के भाव हो, प्रेम की डोरी से बंधे, मित्रवत व्यवहार की सीख दें। गुरू किसी परिभाषा में सीमित नहीं है। हर एक व्यक्ति जो हमें बुराई से दूर कर जीवन को मर्यादित और संयमित होकर जीवन जीने के लिए प्रेरित कर सकें,जिनके बातो से हमारी सुप्त मानसिकता सही कार्य के लिए तैयार हो, जिनकी बातो की गहराई रुह को स्पर्श कर गलत दिशा में जाने से रोके, वे गुरु हैं।सकारात्मक सोच और संतुलित, सहज-सरल व्यक्तित्व के मार्गदर्शन से भी जीवन को नई राह मिलती हैं। जरुरत हैं हर उस व्यक्ति का हम दिल से धन्यवाद करें ।उनकी अच्छाई को ग्रहण करें और उन्हें गुरू मानकर उनके लिए समर्पित हो।
लेखिका /कवयित्री
सुश्री सरोज कंसारी
नवापारा राजिम
जिला-रायपुर(छ.ग.)
मो–913115480
गुरुपूर्णिमा विशेष, आलेख: गुरु और शिष्य का नाता भक्त और भगवान के जैसे होना चाहिए
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